त्याग किसका बड़ा
गांधार देश में ब्रह्मदत्त नाम का राजा राज करता। उसके राज्य में एक वैश्य था, जिसका नाम हिरण्यदत्त था। उसके मदनसेना नाम की एक कन्या थी।
एक दिन मदनसेना अपनी सखियों के साथ बाग़ में गयी। वहाँ संयोग से सोमदत्त नामक सेठ का लड़का धर्मदत्त अपने मित्र के साथ आया हुआ था। वह मदनसेना को देखते ही उसपर ऐसा मोहित हुआ की उससे प्रेम करने लगा। घर लौटकर वह सारी रात उसके लिए बैचेन रहा। अगले दिन वह फिर बाग़ में गया।
मदनसेना वहाँ अकेली बैठी थी। उसके पास जाकर धर्मदत्त ने अपने प्रेम का प्रस्ताव रखा परन्तु मदनसेना ने इंकार कर दिया।
बहुत कहने पर भी जब मदनसेना न मानी तब उसने कहा, “तुम मुझसे प्यार नहीं करोगी तो मैं प्राण दे दूँगा।” और पास ही बह रही एक नदी में कूद गया।
कुछ देर तक तो मदनसेना सोचती रही कि जब डूबने लगेगा तो खुद तैरकर बाहर निकल आयेगा लेकिन जब युवक डूबने के पश्चात भी तैरकर बाहर नहीं आया तब मदनसेना नदी में कूद पड़ी और उस युवक को बचा लायीं।
मदनसेना बोली- “तुम कितने मूर्ख हो, यदि नदी में डूब जाते तो…तुम तैरकर बाहर क्यों नहीं आये।”
“मैं तुम्हारे बिना जीवित नहीं रह सकता। मैं मरने के लिए ही कूदा था, मुझे तैरना नहीं आता।”
मदनसेना का ह्रदय द्रवित हो गया वो कुछ न बोल सकी।
फिर धर्मदत्त बोला- “मदनसेना मैं तुमसे बहुत प्रेम करता हूँ, मैं पूर्णिमा के दिन तुम्हारी प्रतिक्षा करूंगा, तुम आओगी।”
“यदि ईश्वर ने चाहा तो जरूर आऊंगी” इतना कहकर मदनसेना चली गयी।
उधर मदनसेना को देखने उसके घर लड़के वाले आये हुए थे। मदनसेना के माता-पिता को लड़का बहुत पसंद था और उन सभी को मदनसेना।
बात कुछ ऐसी थी कि लड़के की दादी का अंत समय निकट था और वो मरने से पहले अपने पोते का विवाह होते देखना चाहती थी इसलिए आनन-फानन में दो दिनों में ही विवाह संपन्न करने का फैसला लिया गया।
मदनसेना अपने माता-पिता की इच्छा को इंकार न कर सकी। उसका विवाह हो गया और मदनसेना जब अपने पति के पास गयी तो उदास होकर बोली, “आप मुझ पर विश्वास करें और मुझे अभय दान दें तो एक बात कहूँ।” पति ने विश्वास दिलाया तो उसने सारी बात कह सुनायी।
सुनकर पति ने उसे चरित्रहीन समझा और उसे मन ही मन त्यागकर उसने जाने की आज्ञा दे दी और उसके पीछे-पीछे चल पड़ा।
मदनसेना अच्छे-अच्छे कपड़े और गहने पहन कर चली। रास्ते में उसे एक चोर मिला। उसने उसका आँचल पकड़ लिया।
मदनसेना ने कहा-“तुम मुझे छोड़ दो। मेरे गहने लेना चाहते हो तो लो।”
चोर बोला-“मैं तो तुम्हें चाहता हूँ।”
मदनसेना ने उसे सारा हाल कहा-“पहले मैं वहां हो आऊँ, तब तुम्हारे पास आऊँगी।”
चोर ने उसे छोड़ दिया और वह भी उसके पीछे-पीछे चल पड़ा।
मदनसेना धर्मदत्त के पास पहुँची। उसे देखकर वह बड़ा खुश हुआऔर
धर्मदत्त ने मदनसेना से पूछा- “तुम अपने पति से बचकर कैसे आयी?”
मदनसेना ने सारी बात सच-सच कह दी। धर्मदत्त पर उसका बड़ा गहरा असर पड़ा। उसे मदनसेना के साथ समय बिताना अच्छा नहीं लग रहा था।
उसने मदनसेना को समझाकर वापस उसे घर जाने को कहा। मदनसेना चल पड़ी।
फिर वह चोर के पास आयी। चोर सब कुछ जानकर ब़ड़ा प्रभावित हुआ और उसे अपने आप पर ग्लानि महसूस हुयी।
उसने मदनसेना को बिना कुछ किये जाने दिया। इस प्रकार मदनसेना सबसे बचकर पति के पास आ गयी। पति ने भी सारा हाल देख लिया था वह बहुत प्रसन्न हुआ और उसके साथ आनन्द से रहने लगा।
इतना कहकर बेताल बोला- “बताओ विक्रम! बताओ, अब तुम्हारा न्याय क्या कहता है। पति, धर्मदत्त और चोर, इनमें से कौन अधिक त्यागी है?”
विक्रम ने कहा-“जो त्याग बिना स्वार्थ के किया जाता है वही सच्चा त्याग कहलाता हैं। चोर का त्याग ही सबसे बड़ा त्याग हैं। मदनसेना का पति तो उसे दूसरे आदमी पर रुझान होने से त्याग देता है। धर्मदत्त उसे इसलिए छोड़ता है कि उसका मन बदल गया था, फिर उसे यह डर भी रहा होगा कि कहीं उसका पति उसे राजा से कहकर दण्ड न दिलवा दे। लेकिन चोर का किसी को पता न था, फिर भी उसने उसे छोड़ दिया, न तो गहने ही लिए। इसलिए वह उन दोनों से अधिक त्यागी था।”
राजा का यह जवाब सुनकर बेताल बोला- “तुम सच में बड़े न्यायी हो, तुम्हारा न्याय विश्व में अमर होगा। और फिर पेड़ पर जा लटका। राजा विक्रमादित्य फिर उसके पीछे तेज कदमों से चल पड़े।