ग्रीष्मावकाश में कश्मीर भ्रमण के लिए जा रही सखी को पत्र – औपचारिक ।
कानपुर ।
दिनांक 3 जून,
प्रिय रत्ना,
सस्नेह नमस्ते ।
अत्र कुशलं तत्रास्तु ! अभी-अभी तुम्हारा कुशल पत्र मिला । यह पढ़कर बहुत खुशी हुई कि तुम अपने परिवार के साथ इस ग्रीष्मावकाश में कश्मीर भ्रमण के लिए जा रही हो । गतवर्ष मैं भी होकर आई थी । डल झील में नौका विहार के सुखद अनुभवों को मैं अब तक नहीं भुला सकी हूँ। इस स्वर्ग तुल्य धरा का सौंदर्य ही अनोखा था । नेत्र इसे देखते हुए कभी अघाते नहीं थे । इस बार तुम्हारे जीजा जी को छुट्टी न मिलने के कारण इस गरमी में ही सड़ना पड़ रहा है । रात को भी इसके कारण चैन नहीं पड़ती और तुम तो कश्मीर में रजाई तानकर सोओगी ।
तुमने विपला के विषय में पूछा है । उस अभागिन का तो भाग्य ही खोटा है । अब वह ससुराल से लौट कर यहीं आ गई है। उसकी सास का व्यवहार उसके प्रति बहुत ही अशिष्ट है । बात-बात में ताने-सहते-सहते उसकी काया सूख कर काँटा हो गई है। बेचारी बहुत परेशान है। तुम्हारे विषय में कई बार पूछ चुकी है।
यदि हो सके तो लौटती बार कश्मीर से मेरे लिए एक अच्छी- सी शाल लेती आना। कश्मीर सिल्क सस्ती हो तो दो साडियाँ भी ले आना। दोनों का कपड़ा बढ़िया होना चाहिए। मेरे योग्य कोई काम हो तो निस्संकोच लिख भेजना।
जीजा जी को मेरी ओर से नमस्ते कहना और बच्चों को मृदुल प्यार ।
तुम्हारी प्रिय सखी,
मुक्ता