विद्यार्थी और अनुशासन
‘अनुशासन’ शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है-अनु + शासन अर्थात् शासन के पीछे चलना, नियमबद्ध जीवनयापन करना। अनुशासन दो प्रकार का होता है-बाह्य अनुशासन तथा आत्मानुशासन। जब कानून या दंड के भय से नियमों का पालन किया जाता है, तो उसे ‘बाहय अनशासन’ तथा जब स्वेच्छा से नियमों का अनुकूल आचरण किया जाए, तो इस स्थिति को ‘आत्मानुशासन’ कहा जाता है। इन दोनों में आत्मानुशासन श्रेष्ठ है। विद्यार्थी जीवन में अनुशासन की नितांत आवश्यकता होती है क्योंकि जीवन के इसी काल में विद्यार्थी संस्कार ग्रहण करता है, जो जीवन भर उसके साथ चलते हैं, इसीलिए प्राचीन काल में विद्यार्थी को गुरुकुलों में गुरु के कठोर अनुशासन में रखा जाता था। दुर्भाग्य से आज का विद्यार्थी अनुशासनहीन है। समाज में नैतिक मल्यों का ह्रास, दूषित शिक्षा पद्धति, विदेशी संस्कृति का दुष्प्रभाव, फैशन आदि विद्यार्थी को अनुशासनहीन बना रहे हैं। छात्रों में अनुशासन की भावना लाने के लिए सर्वप्रथम शिक्षा-प्रणाली में सुधार आवश्यक हैं। इसमें नैतिक शिक्षा को भी स्थान दिया जाना चाहिए। विद्यार्थियों को राजनीति से दूर रखा जाए, ऐसी विदेशी फ़िल्मों पर प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए, जिनका दुष्प्रभाव विद्यार्थियों के चरित्र पर पड़ रहा हो। माता-पिता को भी प्रारंभ से ही अपने बच्चों को अनुशासन में रहने की प्रेरणा देनी चाहिए।