गुरु भक्ति
Guru Bhakti
समतियों, पुराणों एवं ग्रन्थों में गुरु की महिमा का गायन किया गया है। गुरु को विष्णु पारब्रह्म और ब्रह्मा तक का स्वरूप बता दिया गया है। ऐसे मूर्धन्य व्यक्त्वि को मार्गदर्शक एवं ज्ञान का प्रकाश फैलाने वाला कहा गया है। वस्तुत: ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ का संकल्प गुरु के बिना कदापि फलीभूत नहीं हो सकता है। गुरु के बगैर हम अपने उदेश्य को कभी प्राप्त नहीं कर सकते। तभी तो भक्त कबीर ने ईश्वर से पर्व गरु के पैर पकड़ने को अधिमान दिया है।
इस तथ्य को प्रमाणित करती धनुर्धारी एकलव्य की कथा प्रस्तुत है :
भील हिरण्यधनु का पुत्र एकलव्य धनुष-विद्या सीखने के लिए पाण्डवों के गुरु द्रोणाचार्य के पास गया। द्रोणाचार्य ने उसे धनुर्विद्या सिखाने से मना कर दिया। उन्होंने कहा कि वे केवल राज-पुत्रों को ही अपना शिष्य बनाते हैं। यह सुनकर एकलव्य बहुत उदास हुआ किन्तु इसके मन की लगन में कमी नहीं आई। वह वन में गया। उसने वहां एक कुटिया बनाई और गुरु द्रोण की एक प्रतिमा बनाई। प्रतिदिन वह उस प्रतिमा को प्रणाम करता और धनुर्विद्या का अभ्यास करता। निरन्तर अभ्यास से वह धनुर्विद्या में पारंगत हो गया।
एक बार वह अभ्यास कर रहा था। इतने में पाण्डवों का कुत्ता आकर भौंकने लगा जिससे उसके अभ्यास में विघ्न पड़ने लगा। उसने 7 बाण मार कर उसका मुँह भर दिया। जब पाण्डवों ने कुत्ते को देखा तो हैरान हो गए। उन्होंने एकलव्य का पता लगाया। एकलव्य ने उन्हें अपना गुरु द्रोणाचार्य बताया। उन्होंने इस बारे गुरु द्रोणाचार्य को बताया। द्रोणाचार्य एकलव्य के पास गए और पूछा कि तुम्हें धनुर्विद्या किसने सिखाई है तो उसने उन्हें बताया कि उसने द्रोणाचार्य की प्रतिमा बनाकर धनुर्विद्या का अभ्यास किया है।
तब गुरु द्रोणाचार्य ने गुरु दक्षिणा के रूप में उससे उसके दायें हाथ का अंगूठा मांग लिया। एकलव्य ने सहर्ष अपने दायें हाथ का अंगूठा काट कर उन्हें चढ़ा दिया।
शिक्षा-गुरु के प्रति समर्पण एवं भक्ति रखनी चाहिए।