कथनी से करनी भली
Kathni Se Karni Bhali
गुणी जन एवं श्रेष्ठ व्यक्ति अपने गुणों की तारीफ स्वयं अपने मुँह से नहीं करते। उनके महान् कार्य ही उनकी तारीफ के सुबूत होते हैं। किसी कार्य के विषय में मुंह से कहने और करके दिखाने में बड़ा अंतर है। श्रेष्ठ मनुष्यों का कर्म कथनी नहीं, करनी में निहित होता है। मोहन, रमेश व राजेश तीनों एक ही कक्षा में पढ़ते थे। मोहन के पिता जी का बहुत बड़ा कारोबार था और उसकी दौलत का असर मोहन पर भी था। वह स्कूल में सहपाठियों पर अपनी दौलत का रौब जमाता परन्तु लड़के चुप रह जाते। रमेश के पिता साधारण मुन्शी थे और उनका खर्च बड़ी कठिनाई से चलता था। रमेश को जितना खर्च मिलता, वह चुपचाप बैंक में डाल देता। अब तक उसके 150 रुपए जमा हो गए थे। राजेश के पिता जी नहीं थे और उसकी माता दूसरों के घरों में काम कर घर का खर्चा चलाती थी। कभी-कभी तो राजेश को फीस देना भी भारी पड़ जाती। एक बार बीमार होने के कारण राजेश स्कूल की फीस नहीं भर सका। मोहन सभी लड़कों के सामने राजेश से कहता, मैं तुम्हारी फीस दे सकता हूँ किताबों का खर्च दे सकता हूँ। लेकिन वह कुछ भी न करता, केवल डींगें हांकता। रमेश ने मोहन को बताया कि अब राजेश इम्तहान में नहीं बैठ सकेगा। उसने फीस के 150 रुपए जमा कराने हैं। मोहन ने चतुराई से बात टाल दी कि वह तो अपना पूरा जेब खर्च व्यय कर चुका है। वह अपने पिता से भी नहीं कह सकता। रमेश जानता था कि मोहन कहता कुछ है, करता कुछ है। इसलिए वह चुपचाप गया और बैंक से पैसे निकालकर राजेश की फीस जमा करा दी। रसीद लेकर वह राजेश के घर गया और रसीद उसके हाथों में रख दी। उससे कुछ भी बोला नहीं गया। उसने राजेश से कहा कि परीक्षा की तैयारी परिश्रम से करे। उसने बगैर कहे कार्य करके दिखा दिया।
शिक्षा-कथनी से करनी श्रेष्ठ होती है।