त्याग को भूषन शांति पद
Tyag ko Bhushan Shanti pad
विजय के गर्व से चूर सिकंदर ईरान की सड़कों पर जा रहा था। भयभीत नागरिक झुक-झुककर अभिवादन कर रहे थे। इतने में उसके सेनापति ने कहा, “जहाँपनाह, यहाँ पास ही कोई त्यागी महात्मा रह हैं।” सिकंदर ने आदेश दिया, “जाओ, उसे बुला लाओ।”
सेनापति उस साधु-महात्मा के पास गया और उसने बादशाह का आदेश कह सुनाया। इस पर महात्मा बोला-
“बादशाह दुनिया के हैं, मुहरें मेरे शतरंज के ।
दिल्लगी की चाल है, सब शर्तें सुलहो-जंग के ॥
– जाओ बादशाह से कहो, वह खुद ही आए।” यह सुन सेनापति घबरा गया, बोला, “यदि आप न जाएँगे, तो बादशाह आपको मार डालेंगे।” इस पर महात्मा ने पूछा, “क्या तुम दिग्विजयी का अर्थ जानते हो!” “हाँ महाराज, सारे जगत् को जीतने वाला।” सेनापति ने उत्तर दिया। महात्मा ने आगे प्रश्न किया, “बादशाह कितने लाख मन भोजन नित्य करता है?” “बादशाह दूसरे मनुष्यों की तरह केवल आधा सेर ही रोज खाते हैं।
वे लाख मन कैसे खा सकते हैं?” सेनापति ने जवाब दिया। “तब तो तुम्हारे बादशाह से जंगल के वृक्ष ही अच्छे, जो किसी को कष्ट नहीं देते, बल्कि उपकार करते हैं।” महात्मा बोला। सेनापति ने सिकंदर के पास जाकर सारा हाल कह सुनाया। सिकंदर जान गया कि यह कोई पहुँचा हुआ महात्मा है।
वह तुरंत उसके पास गया और उसके चरणों पर गिरकर हाथ जोड़े बोला, “समस्त संसार पर विजय पाने वाला सिकंदर, जिसके चरणों पर चक्रवर्तियों के मुकुट गिरते हैं, आज आपकी शांति के सामने हाथ जोड़े खड़ा है, क्योंकि उसे अपनी भूल मालूम हो गई है।”