गृह-कलह शांत करने के लिए ससुर का जामाता को पत्र ।
अमृतसर ।
दिनांक 20 दिसंबर,
चिरंजीव प्रिय कुमार,
सदैव आनंदित रहो ! दो दिन पूर्व तुम्हारा पत्र मिला। जिस बात का मझे भय था, वही सच निकला। प्रेम ने मुझे कुछ बताया नहीं था, पर उसक हाव भाव से मैं यह अवश्य समझ गया था कि दाल में कुछ काला अवश्य है । पत्र पाने पर मैं वास्तविकता से कुछ परिचित अवश्य हुआ हूँ। प्रेम से भी इस विषय में बातचीत की है । अब तुम्हारे मुख से भी हदय की बात जानकर ही यह निर्णय किया जा सकता है कि वास्तविक दोषी कौन है ? कलह का सूत्र कौन-सी चीज़ पकड़े हुए है ? अपनी समझ के अनुसार इतना अवश्य कहूँगा कि घर कलह को आरंभ होते ही दबा देने में भलाई है। तुम स्वयं समझदार हो और घर के मालिक भी । घर में सुख शांति बनाये रखने का दायित्व भी तुम्हारा ही है । इस दायित्व को निभाने के लिये हमसे जो सहयोग चाहो, उसके लिए हम सहर्ष तैयार हैं।
प्रेम को भी भली-भाँति समझाया है और तुम्हें भी यही कहूँगा कि परिवार में रहते हुए मन-मुटाव व अशांति के कितन ही अवसर अनजाने में ही सुलझा लेते हैं और किसी अन्य व्यक्ति को उसकी गंध नहीं पहुँचने देते । पति-पत्नी के आपसी संघर्ष को कोई अन्य व्यक्ति क्या सुलझा सकता है ? हाँ, वह हास्य का विषय अवश्य बना सकता है । ऐसी स्थिति में बात बनते-बनते भी बिगड़ जाती है और बाहर दो मेरी और दो तेरी कहने वाले भी आसानी से मिल जाते हैं। उनका ध्येय होता है कि दूसरे के घर में आग लगाकर हाथ सेकना । अंत में मेरा तुमसे यही अनुरोध है कि तुम अविलंब यहाँ पधारो । ससुराल तुम्हारा अपना घर है । यहाँ आने में तुम्हारी शोभा है । वैसे मझे दिल्ली आने में कोई इंकारी नहीं है । इसमें मेरे सम्मान-असम्मान की कोई बात नहीं है । पर बेटा, घर की बात बाहर जाती है । चार कान खड़े होते हैं । यह सभ्य परिवार वालों के हित में नहीं है।
आगे तुम स्वयं बुद्धिमान हो । जैसी इच्छा बने, उससे मुझे सूचित करना । प्रेम की माता तुम्हें शुभाशीष देती है । पत्रोत्तर की प्रतीक्षा में ।
तुम्हारा शुभाकांक्षी,
सियाराम गुप्त