करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान
आज मानव ने अपने परिश्रम, सतत अभ्यास एवं पुरुषार्थ के बल पर प्रकृति पर आधिपत्य स्थापित कर लिया है। उपर्युक्त सूक्ति में अभ्यास के महत्त्व की ओर इंगित किया गया है। वृंद कवि द्वारा रचित पूरा दोहा इस प्रकार है-‘करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान, रसरी आवत जात ते सिल पर परत निसान।’ जिस प्रकार रस्सी के बार-बार आने-जाने से कठोर पत्थर पर भी चिह्न अंकित हो जाते हैं, उसी प्रकार निरंतर अभ्यास से मूर्ख व्यक्ति भी विद्वान बन जाता है। यह बात अनुभव सत्य है कि पाषाण युग का आदि मानव अभ्यास के बल पर ही आज इस स्थिति पर पहुँच पाया है। एक शिशु अभ्यास के बल पर ही बोलना, लिखना-पढ़ना, चलना आदि सीखता है तथा बड़ा होने पर भी अभ्यास द्वारा अनेक प्रकार की निपुणताएँ प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है। कालिदास जैसा मूर्ख अभ्यास के बल पर ही संस्कृत का सर्वश्रेष्ठ कवि बन पाया। अर्जन, एकलव्य जैसे धनुर्धर भी अभ्यास के बल पर ही इतनी श्रेष्ठता एवं कौशल प्राप्त कर पाए। जन्म से कोई विदवान नहीं होता। अभ्यास के सहारे ही विद्या प्राप्त होती है। संसार में जितने भी महान कलाकार, वैज्ञानिक आदि हुए हैं, उन सबकी उन्नति में अभ्यास का महत्त्वपूर्ण योगदान है। विचारकों ने मानव जीवन में उन्नति के लिए दो चीजों को आवश्यक माना है-प्रतिभा और अभ्यास। प्रतिभा ईश्वरप्रदत्त होती है तथा अभ्यास व्यक्ति-निर्मित। विद्यार्थियों के लिए तो अभ्यास नितांत महत्त्वपूर्ण है। सतत अभ्यास के विना विद्या तथा क्षमता स्थायी नहीं रह पाती। निरंतर अभ्यास एक ऐसी कुंजी है, जो मनुष्य के लिए प्रगति का हर द्वार खोल सकती है।