मन के हारे हार है, मन के जीते जीत
महाकवि तुलसीदास जी ने कहा है-‘कर्म प्रधान विश्व करि राखा’ अर्थात् कर्म ही जीवन है। यह संपूर्ण जगत कर्ममय है। कर्म के बिना लक्ष्य की प्राप्ति संभव नहीं। कभी-कभी कर्म करने पर भी व्यक्ति को लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो पाती। ऐसी स्थिति में वह निराशा और अवसाद में घिर जाता है। कभी-कभी उसकी निराशा इस हद तक बढ़ जाती है कि वह भाग्यवादी बन जाता है तथा अपने जीवन से ही निराश होने लगता है, पर वह भूल जाता है कि सफलता और असफलता एक सिक्के के दो पहलू हैं। इस प्रकार की सोच का केंद्रबिंदु है-मानव मन। मन की शक्ति ही उसे असफलता में आगे बढ़ने का साहस प्रदान करती है तथा उसे बाधाओं से लड़ने की प्रेरणा देती है, तो मन की दुर्बलता ही उसे कायर, भीरु तथा भाग्यवादी बना देती है। व्यक्ति का शक्तिशाली मन उससे असंभव को भी संभव करवा सकता है। किसी ने ठीक कहा है-‘मन जीते जो जग जीते।’ यदधस्थल में आग उगलती तोपों के सम्मुख सैनिक मन की दढता और संकल्प शक्ति के सहारे ही आगे बढ़ते हैं। सिकंदर के विश्व विजयी बनने की कामना मन का ही प्रचंड वेग था। दुर्बल संकल्प तथा मन वाला व्यक्ति समुद्र तट पर बैठा हुआ डबने के भय से समद्र के आँचल में छिपे मोती प्राप्त नहीं कर सकता; अतः स्पष्ट है कि जैसे सफलता मन की जीत है. वैसे ही असफलता मन की हार है।