शारीरिक श्रम
यह संसार कर्म प्रधान है। कर्म ही जीवन है। कर्म से रहित जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। किसी भी कर्म को पूर्ण निष्ठा तथा उत्साह के साथ संपन्न करना ही परिश्रम या श्रम है। परिश्रम ही वह कुंजी है, जिसकी सहायता से भाग्य और सफलता के बंद ताले खुलते हैं। अपनी कामनाओं और कल्पनाओं के इंद्रधनुषी रंग तभी जीवन में बिखरते हैं, जब व्यक्ति श्रम करता है। श्रम कई प्रकार का हो सकता है-एक मजदूर, किसान, मिस्त्री आदि जो श्रम करते हैं, वह शारीरिक श्रम के अंतर्गत आता है। वैज्ञानिक, लेखक, दार्शनिक, चिंतक आदि बुद्धिजीवियों का श्रम मानसिक या बौद्धिक श्रम के अंतर्गत माना जाता है। दोनों प्रकार के श्रम का अपना-अपना महत्व होता है। परिश्रम और सफलता का चोली-दामन का साथ है। परिश्रम करने पर ही सफलता प्राप्त होती है, केवल मनोरथ से नहीं। संस्कृत में कहा गया है-
“उद्यमेन हि सिध्यंति कार्याणि न मनोरथैः
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशंति मुखे मृगाः।।”
अर्थात् सभी कार्य उद्यम परिश्रम से सिद्ध होते हैं, मनोरथ करने से नहीं। सोते हुए शेर के मुँह में कोई हिरण स्वयं प्रवेश नहीं करता, सिंह को उसे पकड़ने के लिए श्रम करना पड़ता है। संसार के जितने भी उन्नत देश हैं, उनकी उन्नति का आधार वहाँ के निवासियों का अथक परिश्रम ही है। वैज्ञानिकों के परिश्रम के बल पर ही आज मानव जल, थल और नभ पर अपना आधिपत्य जमा सका है। आलसी व्यक्ति ही अपनी असफलताओं के लिए भाग्य को दोष दिया करते हैं। परिश्रमी तो परिश्रम करके असंभव को भी संभव बना लेता है।