वर्षा: ऋतुओं की रानी
Varsha Rituo Ki Rani
कविवर दिनकर ने ठीक ही कहा है-‘ है वसंत ऋतुओं का राजा, वर्षा ऋतुओं की रानी।‘
ग्रीष्म ऋत में प्रकृति के प्रकोप से सारा जग संतप्त हो उठता है, भूतल तवा-सा जलने लगता है, लू के थपेड़ों में वनस्पति झुलसने लगती है, नदी-नाले, ताल-तलैया, सरोवरों और पोखरों का जल सूख जाता है, तो सभी की आँखें, आकाश की ओर लग जाती हैं। ‘सुरपति के अनुचर’ बादल गरजते-तरजते, आ-आकर आकाश में इकट्ठे होने लगते हैं और तब होता है-वर्षा का आगमन। प्रकृति में चेतना लौटने लगती है, वनस्पतियाँ फूटने लगती हैं, तृषित धरती की प्यास बुझ जाती है, कृषक का मन हर्षित हो उठता है। चारों ओर हरियाली का साम्राज्य देखकर धरती का रोम-रोम पुलकित हो उठता है। वर्षा काल के सुहावने समय में ‘तीज’ का त्योहार आता है। बाग-बगीचों में झूले पड़ जाते हैं। महिलाएँ मल्हार राग से सावन का स्वागत करती हैं। कहीं कजरी राग सनाई देता है, तो कहीं पुरुष ‘आल्हा’ गाते दिखाई देते हैं। जिस प्रकार वर्षा के न होने पर दुर्भिक्ष पड़ने का खतरा उत्पन्न हो जाता है, वैसे ही अतिवृष्टि भी विनाश का तांडव करती है। कुछ भी हो, वर्षा के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती।