प्रेम
Prem
भूमिका
प्रेम मनुष्य के हृदय की एक पवित्र शक्ति । इसके उद्गार के अनेक रूप। कभी मित्रों, कभी कुटम्बियों और कभी देश से प्रेम। संसार प्रेम की ही डोरी में बँधा है।
संसार में प्रेम का विकास
परिवार के लोगों में संबंध के लिहाज़ से न्यूनाधिक। पिता का संतान से प्रेम, स्व-मातृभूमि से प्रेम, धर्म से प्रेम इत्यादि।
लाभ
सुख का मूल! आपत्ति में सहारा। गृहस्थ का आनं । प्रेम बिना जीवन फीका। अभाव में सर्वनाश। युद्ध तथा कलह आदि।
भेद
स्वार्थ और निःस्वार्थ।
उदाहरण
सीता के प्रेम से राम का आपत्तियों को उठाना। धर्म के प्रेम से हकीकतराय का सिर कटवाना। स्वदेश प्रेम से अनेक महात्माओं का अपनी जान तक पर खेल जाना। प्रेम के अभाव से कौरव-पांडवों का सर्वनाश।
प्रेम को स्थायी रखने के उपाय
प्रेम निःस्वार्थ हो। मित्रों के दुर्गण देखकर भी उन्हें ओझल कर जाना।
उपसंहार
मनुष्य जीवन के आनंद के लिए प्रेम आवश्यक। भारत के उद्धार के लिए मातृभूमि के निःस्वार्थ प्रेम की ज़रूरत।