अंतर
Antar
एक बार मुस्लिम संत राबिआ मक्का-मदीने की यात्रा पर निकलीं। वे बूढ़ी हो गई थीं। उन्हें इस अवस्था में पैदल चलते देख खुदा को रहम आया और काबा खुद उनके स्वागत के लिए आगे आया। इससे ह करने आए लोगों को काबा अपनी जगह पर नजर नहीं आया।
एक बुजुर्ग संत इब्राहीम-बिन-अदहम जब चौदह वर्ष यात्रा करने के बाद मक्का पहुँचे, तो नमाज-रकअत पढ़ते समय उन्हें भी काबा नजर नहीं आया।
वे बड़े दुःखी हुए और गिड़गिड़ाने लगे कि इतना कष्ट उठाकर वे वहाँ पहुँचे हैं और काबा का दीदार नहीं हो रहा है। इतने में उनके कानों में आवाज आई, “ऐ इब्राहीम ! काबा इस वक्त एक बूढ़ी औरत के इस्तिकबाल (स्वागत) के लिए गया है। इसलिए वह तुम्हें दिखाई नहीं दे रहा है।”
इब्राहीम को कुतूहल हुआ कि ऐसी कौन-सी बुढ़िया है, जिसके लिए काबा भी अपनी जगह से हट गया है। इतने में उसे सामने से लकड़ी टेकती एक बुढ़िया आती दिखाई दी।
यह राबिआ थी। इब्राहीम उसे झिड़कते हुए बोले, “ऐ बुढ़िया ! तूने यह क्या हंगामा मचा रखा है कि काबा का हम दीदार भी नहीं कर सकते?”
राबिआ ने जवाब दिया, “इब्राहीम ! हंगामा मैंने नहीं तुमने मचाया है, जो चौदह बरस के लंबे अर्से के बाद तुम खान-ए-काबा में आए हो।” इब्राहीम बोले, “मगर मैं तो हर कदम पर नमाज करता आया हूँ।” इस पर राबिआ बोलीं, “तुमने बेशक नमाज पढ़कर मंजिल तय की है, मगर मैंने बेखुदी और हलीमी (दीनता) से इसे तय किया है।” और तब इब्राहीम को राबिआ की श्रेष्ठता मालूम हो गई ।