मायके गई हुई पत्नी के नाम पति का पत्र ।
मुंबई ।
दिनांक 4 जनवरी, ………
प्रिय रश्मि,
सप्रेम!
तुम्हारे बिछोह की ही घड़ियाँ अभी बीती हैं, पर ऐसा प्रतीत होने लगा है कि न जाने तुम कितने मासों से यहाँ नहीं हो । फ्लेट की सारी व्यवस्था उलट-पुलट हो गई है । खोजने पर भी कोई वस्तु नहीं मिल पाती । फैक्टरी पहुँचने में भी विलंब हो जाता है । खाने-पीने की तो बात ही छोड़ दो, सब बेजायका-सी लगने लगी हैं । सच तो यह है कि तुम घर की आत्मा हो और आत्मा रहित घर श्मशान के अलावा कुछ नहीं रह जाता।
दिन के कुछ घंटे तो फैक्टरी के कामकाज और मशीनरी के शोरगुल में जैसे-तैसे कट ही जाते हैं, उसके बाद संध्या को घर लौटने को मन ही नहीं होता। घर की नीरवता मानो खाने को दौडती हो। कितने आश्चर्य की बात है। कि ज्योत्स्ना और तुम, केवल दो प्राणियों से यहाँ इतनी रौनक थी कि सदा बहार सी लगी रहती थी और उन दो के बिना एक दम उजाड़, सूनापन-सा प्रतीत होता है। माता जी की नित्य यही शिकायत रहती है कि मैं घर आना भूलने लगा हूँ। पर तुम्हीं बताओ इस शिकायत को दूर करूं कैसे? इस रंगीनियों से भरे नगर के बियाबान फ्लेट में आकर करूँ भी क्या?
तुम तो मायके में पहुँचकर और सखियों की चुहल बाजियों में अपनी सुखद घड़ियाँ काट रही होंगी। ज्योत्स्ना स्वस्थ तो है । तंग तो नहीं करती तुम्हें ? कभी मेरी भी याद आ जाती है उसे या नहीं। मेरी ओर से उसके सुंदर टमाटर से कपोलों पर एक चुंबन अंकित कर देना, मैं यहाँ उसकी छवि पर कर रहा हूँ। कदाचित तुम्हारे लौटने में अभी कुछ दिन लगें। मैं ही अगले रविवार को यान द्वारा पहुँचने का प्रयास करूँगा। सुना है ससुराल सुख की सार जब रहे दो चार दिन।
माता जी व पिता जी को मेरी ओर से नमस्कार कहना और ललिता को मृदुल प्यार ।
तुम्हारा ही,
पथिक